तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 1 Medha Jha द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 1

हर्ष ,हर्ष! कहां हो तुम? तुम्हें ढूंढती, तुम्हारे पीछे भागती वही मैं और अचानक सपना टूट जाता है। क्यों बार-बार देख रही हूं मैं यह सपना ? क्या संबंध है मेरा इस सपने से ?

संबंध तो वास्तव में बहुत गहरा रहा है। करीब 25 साल पुराना। याद आता है वह दिन , करीब 16 साल की रही होंगी मैं। कुछ उम्र की खुमारी , कुछ मेरी कल्पनाशीलता और उस पर उस समय यह संदेश आना कि तुम्हें भी मैं बहुत अच्छी लगती हूँ मैं। कैसा नशा था, खुद-ब-खुद दिन जैसे रजनीगंधा की महक से महकने लगे थे। हर समय तुम्हारी बातें , हर दिन तुम्हारी याद, स्वप्निल सी दुनिया थी मेरी। बार-बार निकाल के उस पत्र को पढ़ना जो कि मेरी प्रिय मित्र ने दिया था तुम्हारे नाम का खत कहकर। किसी भी पवित्रतम् वस्तु से ज्यादा पवित्र था वह पत्र मेरे लिए । कितनी कितनी बार पढा था मैं ने उसे , जिसमें कि तुम्हारा वादा था तुम आओगे जब तुम कुछ बन जाओगे । कितना विश्वास था मुझे उस खत पर और मुझे पता भी नहीं था कि अगले 5 साल सिर्फ उस खत के सहारे ही रहने वाली हूँ मैं। क्या आज के समय में कोई विश्वास कर सकता है कि बिना मिले , बिना बात किए, बिना s.m.s., बिना चैटिंग , बिना ईमेल के , कोई चार पन्नों के सहारे किसी का 5 साल तक प्रतीक्षा कर सकता है । कोई विश्वास करें या ना करें , सच तो सच है और वास्तव में शायद यह प्रतीक्षा और भी लंबी होती अगर उस दिन कॉलेज से आते समय अपनी बात मेरे एहसासों के बारे में मैंने अपने मित्र सौरभ को नहीं बताया होता जो कि वास्तव में हतप्रभ रह गया था कि ऐसा भी हो सकता है क्या?
गजब रुमानी सी दुनिया थी मेरी उस समय। हर समय अपने में खोए रहने वाली सिर्फ तुम्हारे बारे में बात करने वाली और अगर कहीं गलती से सड़क पर तुम दिख जाते कई कई दिनों तक उस नशे से उभर ही नहीं पाती थी मैं ।मैं तो मैं अगर मेरी किसी मित्र को या मेरी प्यारी छुटकी को तुम दिख जाते तो बस यह सुनकर भी एक अलग ही दुनिया में पहुंच जाती थी। कई बार सड़क पर निकलती शायद तुम दिख जाओ। क्योंकि वह एक झलक भी कुछ दिनों के लिए ही था मयस्सर था मुझे और फिर एक लंबी वीरानी अगले छ: महीने के लिए। किसी मित्र से ही पता चला था मुझे कि हिंदू कॉलेज में हो तुम। और उसी समय से हिंदू कॉलेज मेरा प्रिय कॉलेज हो गया था।


कितना सम्मोहक था व्यक्तित्व तुम्हारा। लगता था तुम्हें देखती ही रहूँ मैं । गौर वर्ण का छः फिट ऊंचा व्यक्तित्व, शायद आँखें तुम्हारी भूरी थी और बाल भी वैसे ही भूरे घुंघराले से । दूर से मुझे इतना ही पता चल पाया था।
अभी भी लग रहा है जैसे सामने से साइकिल का हैंडल अपने एक हाथ से पकड़े , काले कॉलर वाला सुर्ख लाल रंग की टी-शर्ट पहने हुए आराम से चले आ रहे हो तुम। प्रति दिन आते-जाते देखती रहती थी मैं तुम्हें। उफ अब बर्दाश्त नहीं हो रहा मुझसे।

और एक दिन जब मुझ से रहा नहीं गया। सुबह सुबह निकल पड़ी मैं तुमसे मिलने । मुझे पता था सुबह तुम जाते हो पढ़ने के लिए कहीं। वह दिन मेरी आंखों के सामने हैं जब तुम मेरे सामने खड़े थे पहली बार इतनी नजदीक से। पहले तो मुझसे कुछ कहा ही नहीं गया । क्या हो गया था मुझे? सब जगह निडर छवि रही थी मेरी चाहे वह मेरा घर हो या मेरा स्कूल। फिर मुझे लगा मैं यह मौका गंवा ना दूँ तुमसे बात करने का।

तुम्हारे साथ तुम्हारा एक मित्र भी था। अपने पर और तुम्हारे पत्र पर पूरा विश्वास करते हुए मैंने तुमसे पूछा था - "मुझे तो जानते होगे तुम।" उत्तर अचंभित कर देने वाला था।"हाँ,हम लोग कक्षा 6 में साथ रहे थे।"

यही परिचय था क्या मेरा ? तुम्हारे बाल्यकाल की कक्षा 6 की सहपाठिनी मात्र। बस इतना ही नाता था क्या हमारा तुम्हारा ।एक क्षण के लिए निरुत्तर रह गई थी मैं । तुमने ही चुप्पी तोड़ी थी। "कुछ कहना था ,आपको।"

'आपको' यह कौन सी अनजानो वाली भाषा प्रयोग कर रहे थे तुम। मुझे लगा शायद साथ में जो तुम्हारे मित्र खड़े हैं इसी वजह से सहज नहीं हो पा रहे हो तुम। मैंने तुरंत क्षमा याचना की-" मुझे लगता है मैं गलत व्यक्ति समझ के आपसे पास आ गई।" बहुत परेशान रही थी मैं कई दिनों तक। फिर मेरी मित्रों ने ही समझाया था कि दूसरों के सामने नहीं खुलना चाहता होगा।